देहरादून: उत्तराखंड संस्कृति जगत व पहाड़ के लोकसंगीत के पुरोधा, लोक कवि, गायक, कुमाऊंनी गढ़वाली जौनसारी अकादमी के उपाध्यक्ष हीरा सिंह राणा अब हमारे बीच नहीं रहे। हृदयाघात से आज सुबह ढाई बजे दिल्ली में उनका निधन हो गया। वे 77 साल के थे। जीवनपर्यन्त पहाड़ के लोकसंगीत और लोकसंस्कृति की सेवा करने वाले हीरा दा का जाना उत्तराखंड के लोक के लिए बहुत बडी क्षति है। उनका जाना एक पूरे युग का समापन है।
बेहद आर्थिक तंगी में जीवन यापन करने के बाद भी हीरा सिंह राणा नें उत्तराखंड की संस्कृति के उत्थान के लिए जो योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। लोग प्यार से उन्हें ‘हिरदा कुमाऊनी’ भी कहते थे। उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति हो या तीज त्योहार, देशभक्ति हो या जन-जन की सामाजिक पीड़ा, संघर्षों और पहाड़ की विभीषिकाओं को झेलती नारी की व्यथाकथा, पर्वतीय जनजीवन के हर पहलू पर हीरा सिंह राणा जी ने अपनी लेखनी चलाई। उनके गीत हृदय की गहराइयों को छूने वाले होते थे। मेरी मानिल डानी’, ‘आ ली ली बाकरी’ ‘नोली पराणा’ ‘रंगीली बिंदी घागरी काई, हाई हाई रे मिजाता’ जैसे अनगिनत गीत आज भी पहाड़ के लोक की पहचान है।
गौरतलब है कि हीरा सिंह राणा का जन्म 16 सितंबर 1942 को मानिला डंढ़ोली जिला अल्मोड़ा में हुआ था। उनकी माताजी स्व. नारंगी देवी, पिताजी स्व. मोहन सिंह थे। हीरा सिंह राणा की प्राथमिक शिक्षा मानिला में हुई। उन्होंने दिल्ली में सेल्समैन की नौकरी की लेकिन इसमें उनका मन नहीं लगा और इस नौकरी को छोड़कर वह संगीत की स्कालरशिप लेकर कलकत्ता चले गए और संगीत के संसार में पहुँच गए।
इसके बाद हीरा सिंह राणा ने उत्तराखंड के कलाकारों का दल नवयुवक केंद्र ताड़ीखेत 1974, हिमांगन कला संगम दिल्ली 1992, पहले ज्योली बुरुंश (1971) , मानिला डांडी 1985, मनख्यु पड़यौव में 1987, के साथ उत्तराखण्ड के लोक संगीत के लिए काम किया। इस बीच उन्होंने कुमाउनी लोक गीतों के 6- कैसेट ‘रंगीली बिंदी, रंगदार मुखड़ी’, सौमनो की चोरा, ढाई विसी बरस हाई कमाला’, ‘आहा रे ज़माना’ भी निकाले। उन्होंने कुमाँउ संगीत को नई दिशा दी और ऊचाँई पर पहुँचाया। हीरा सिंह राणा के निधन से उत्तराखण्ड के संगीत जगत को अपूरणीय क्षति पहुंची है।